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October 10, 2011

'ए डाकबाबू! हमारी कोई चिट्ठी है?'

Rajesh Kumawat | 09:06 | | Best Blogger Tips


'विश्व डाक दिवस' 9 अक्टूबर पर विशेष
(इस लेख के लेखक श्री कृष्ण कुमार यादव भारतीय डाक सेवा अधिकारी है और वर्तमान में अंडमान निकोबार द्वीप समूह में निदेशक है )


दुनिया में एक कोने से दूसरे कोने तक यदि पत्र निर्बाध रूप से आ-जा रहे हैं तो इसमें 'यूनिवर्सल पोस्टल' यूनियन का बहुत बड़ा योगदान है, जिसकी स्थापना 9 अक्टूबर 1874 को स्विटजरलैंड में हुई थी। इसलिए पूरी दुनिया में 9 अक्टूबरको 'विश्व डाक दिवस' मनाती है। डाक-सेवाओं में वैश्विक स्तर पर तमाम क्रांतिकारी परिवर्तन आए हैं और भारत भी इन परिवर्तनों के साथ खड़ा है। संचार क्रान्ति के नए साधनों-टेलीफोन, मोबाइल फोन, इण्टरनेट, फैक्स, वीडियो कान्फ्रेंसिंग ने दुनिया को एक 'ग्लोबल विलेज' में परिवर्तित कर दिया है आप चंद सेकेंडों में अपनो से रूबरू होते हैं और दुनिया के किसी भी कोने में अपने संदेशपहुंचाते हैं। दुर्गम स्थानों तक पहुंचना या कोई संदेश पहुंचाना कितना मुश्किल हुआ करता था। विश्व संचार क्रांति का यह बड़ा लाभ हुआ है कि आज उन तक पहुंच आसान हो गई है। कहना न होगा कि भारत में डाक सेवाओं की चुनौतियों पर गौर करें तो उसने ऐसे स्थानों तक भी चिट्ठियों के माध्यम से मिलन को कामयाब बनाया जहां आज भी पहुंचना कोई आसान नहीं है। पहाड़ों पर डाकिये की प्रतीक्षा पर तो न जाने कितने साहित्यकारों और लेखकों ने मार्मिक और सर्वाधिक उत्सुकता भरी रचनाएं की हैं। न जाने कितने गीत और लोकगीत लिखे गए हैं। डाकिये को देखते ही जो लोगों के मन में प्रतिक्रियाएं हुई हैं उनका साहित्य में काफी उल्लेख है। भले ही दुनिया संचार क्रांति के जश्न में डूबी हो लेकिन वह उन पत्रों के महत्व को कम नहीं कर सकती जो लंबी दूरियां तय करते हुए अपनों तक पहुंचे और कहीं-कहीं पर संग्राहलयों की शोभा और उनका महत्व बढ़ा रहे हैं।
पत्र-प्रेषण की दुनिया में समय-समय पर भारी उतार-चढ़ाव देखने को मिले हैं। वैश्विक स्तर पर पहली बार 1996 में संयुक्त राज्य अमेरिका में ई-मेल की कुल संख्या डाक सेवाओं की वितरित पत्रों की संख्या को पार कर गई और ऐसे में पत्रों की प्रासंगिकता पर भी प्रश्न चिन्ह लगने लगे। सभ्यता के आरम्भ से ही मानव किसी न किसी रूप में पत्र लिखता रहा है। दुनिया का सबसे पुराना ज्ञात पत्र 2009 ईसा पूर्व का बेबीलोन के खण्डहरों से मिला था, जोकि वास्तव में एक प्रेम पत्र था और मिट्टी की पटरी पर लिखा गया था। कहा जाता है कि बेबीलोन की किसी युवती का प्रेमी अपनी भावनाओं को समेटकर उससे जब अपने दिल की बात कहने बेबीलोन तक पहुंचा तो वह युवती तब तक वहां से जा चुकी थी। वह प्रेमी युवक अपनी भावनाओं पर काबू नहीं रख पाया और उसने वहीं मिट्टी के फर्श पर खोदते हुए लिखा-'मैं तुमसे मिलने आया था, तुम नहीं मिली।यह छोटा सा संदेश विरह की जिस भावना से लिखा गया था, उसमें कितनी तड़प शामिल थी। इसका अंदाजा सिर्फ वह युवती ही लगा सकती थी जिसके लिये इसे लिखा गया थाइसके साथ पत्रों की दुनिया ने अपना एक ऐतिहासिक सफर शुरू किया।
जब संचार के अन्य साधन न थे, तो पत्र ही संवाद का एकमात्र माध्यम था। पत्रों का काम मात्र सूचना देना ही नहीं बल्कि इनमें एक अजीब रहस्य या गोपनीयता, संग्रहणीयता, लेखन कला एवं अतीत को जानने का भाव भी छुपा होता है। पत्रों की सबसे बड़ी विशेषता इनका आत्मीय पक्ष है। यदि पत्र किसी खास का हुआ तो उसे छुप-छुप कर पढ़ने में और संजोकर रखने एवं मौका पाते ही पुराने पत्रों के माध्यम से अतीत में लौटकर विचरण करने का आनंद ही कुछ और है। यह सही है कि संचार क्रान्ति ने चिट्ठियों की संस्कृति को खत्म करने का प्रयास किया है और पूरी दुनिया को बहुत करीब ला दिया है, पर इसका एक पहलू यह भी है कि इसने दिलों की दूरियां इतनी बढ़ा दी हैं कि बिल्कुल पास में रहने वाले अपने इष्ट मित्रों और रिश्तेदारों की भी लोग खोज-खबर नहीं रखते। ऐसे में युवा पीढ़ी के अंदर संवेदनाओं को बचा पाना कठिन हो गया है। पत्रों के आने की प्रतीक्षा का भाव ही अनूठा है तभी तो पत्रों की महत्ता को देखते हुए एनसीईआरटी को पहल कर कक्षा आठ के पाठ्यक्रम में 'चिट्ठियों की अनोखी दुनिया' नामक अध्याय को शामिल करना पड़ा।
पत्र लेखन सिर्फ संचार का माध्यम नहीं, बल्कि एक सशक्त विधा है। स्कूलों में जब बच्चों को पत्र लिखना सिखाया जाता है तो अनायास ही वे अपने माता-पिता, रिश्तेदारों या मित्रों को पत्र लिखने का प्रयास करने लगते हैं। पत्र सदैव सम्बंधों की ऊष्मा बनाये रखते हैं। पत्र लिखने का सबसे बड़ा फायदा यह है कि इसमें कोई जल्दबाजी या तात्कालिकता नहीं होती, यही कारण है कि हर छोटी से छोटी बात पत्रों में किसी न किसी रूप में अभिव्यक्त हो जाती है जो कि फोन या ई-मेल से सम्भव नहीं है। पत्रों की सबसे बड़ी विशेषता इनका स्थायित्व है। कल्पना कीजिये जब अपनी पुरानी किताबों के बीच से कोई पत्र हम अचानक पाते हैं, तो लगता है जिन्दगी मुड़कर फिर वहीं चली गयी हो। जैसे-जैसे हम पत्रों को पलटते हैं, सम्बन्धों का एक अनंत संसार खुलता जाता है। व्यक्ति पत्र तात्कालिक रूप से भले ही जल्दी-जल्दी पढ़ ले पर फिर शुरू होती है-एकान्त की खोज और फिर पत्र अगर किसी खास के हों तो सम्बन्धों की पवित्र गोपनीयता की रक्षा करते हुए उसे छिप-छिप कर बार-बार पढ़ना, जितनी ही बार पत्र पढ़ना उसके उतने ही नये अर्थ सामने आते हैं।
सिर्फ साधारण व्यक्ति ही नहीं बल्कि प्रतिष्ठित व्यक्तियों ने भी पत्रों के अंदाज को जिया है। मार्क्स-एंजिल्स के मध्य ऐतिहासिक मित्रता का सूत्रपात पत्रों से ही हुआ। अमेरिका के तत्कालीन राष्ट्रपति अब्राहम लिंकन ने उस स्कूल के प्राचार्य को पत्र लिखा, जिसमें उनका पुत्र अध्ययनरत था। इस पत्र में उन्होंने प्राचार्य से अनुरोध किया था कि उनके पुत्र को वे सारी शिक्षाएं दी जाएं, जो कि एक बेहतर नागरिक बनने के लिए जरूरी हैं। इसमें किसी भी रूप में उनका पद आडे़ नहीं आना चाहि। महात्मा गांधी तो पत्र लिखने में इतने सिद्धहस्त थे कि दाहिने हाथ के साथ-साथ वे बाएं हाथ से भी पत्र लिखते थे। पंडित जवाहर लाल नेहरू अपनी पुत्री इन्दिरा गांधी को जेल से भी पत्र लिखते रहे। ये पत्र सिर्फ पिता-पुत्री के रिश्तों तक सीमित नहीं हैं, बल्कि इनमें तात्कालिक राजनैतिक एवं सामाजिक परिवेश का भी सुन्दर चित्रण है। इन्दिरा गांधी के व्यक्तित्व को गढ़ने और सुदृढ़ बनाने में इन पत्रों का बहुत बड़ा हाथ रहा है। आज ये किताब के रूप में प्रकाशित होकर ऐतिहासिक दस्तावेज बन चुके हैं।
इन्दिरा गांधी ने इस परम्परा को जीवित रखा और दून में अध्ययनरत अपने बेटे राजीव गांधी को घर की छोटी-छोटी चीजों और तात्कालिक राजनैतिक-सामाजिक परिस्थितियों के बारे में लिखती रहीं। एक पत्र में तो वे राजीव गांधी को रीवा के महाराज से मिले सौगातों के बारे में भी बताती हैं। तमाम राजनेताओं-साहित्यकारों के पत्र समय-समय पर पुस्तकाकार रूप में प्रकाशित होते रहते हैं। इनसे न सिर्फ उस व्यक्ति विशेष के संबंध में जाने-अनजाने पहलुओं का पता चलता है बल्कि तात्कालिक राजनैतिक-सामाजिक-साहित्यिक-सांस्कृतिक परिवेश के संबंध में भी बहुत सारी जानकारियां प्राप्त होती हैं। इसी ऐतिहासिक के कारण आज भी पत्रों की नीलामी लाखों रूपयों में होती हैं।पत्रों का संवेदनाओं से गहरा रिश्ता है और यही कारण है कि पत्रों से जुड़े डाक विभाग ने तमाम प्रसिद्ध विभूतियों को पल्लवित-पुष्पित किया है।
अमेरिका के राष्ट्रपति अब्राहम लिंकनपोस्टमैन तो भारत में पदस्थ वायसराय लार्ड रीडिंग डाक वाहक रहे। विश्व प्रसिद्ध वैज्ञानिक और नोबेल पुरस्कार विजेता सीवी रमन भारतीय डाक विभाग में अधिकारी रहे वहीं प्रसिद्ध साहित्यकार और 'नील दर्पण' पुस्तक के लेखक दीनबन्धु मित्र पोस्टमास्टर थे। ज्ञानपीठ पुरस्कार से सम्मानित लोकप्रिय तमिल उपन्यासकार पीवी अखिलंदम, राजनगर उपन्यास के लिए साहित्य अकादमी पुरस्कार से सम्मानित अमियभूषण मजूमदार, फिल्म निर्माता व लेखक पद्मश्री राजेन्द्र सिंह बेदी, मशहूर फिल्म अभिनेता देवानन्द डाक कर्मचारी रहे हैं। उपन्यास सम्राट प्रेमचन्द जी के पिता अजायबलाल डाक विभाग में ही क्लर्क रहे। ज्ञानपीठ पुरस्कार विजेता मशहूर लेखिका महाश्वेता देवी ने आरम्भ में डाक-तार विभाग में काम किया था तो प्रसिद्ध बाल साहित्यकार डॉ राष्ट्रबन्धु भी पोस्टमैन रहे। सुविख्यात उर्दू समीक्षक पद्मश्री शम्सुररहमान फारूकी, शायर कृष्ण बिहारी नूर, महाराष्ट्र के प्रसिद्ध किसान नेता शरद जोशी सहित तमाम विभूतियाँ डाक विभाग की गोद में अपनी सृजनात्मक-रचनात्मक काया का विस्तार पाने में सफल रहीं।
भारतीय परिपे्रक्ष्य में इस तथ्य से इंकार नहीं किया जा सकता कि भारत एक कृषि प्रधान एवं ग्रामीण अर्थव्यवस्था वाला देश है, जहां 70 फीसदी आबादी गांवों में बसती है। समग्र टेनी घनत्व भले ही 60 का आंकड़ा छूने लगा हो पर ग्रामीण क्षेत्रों में यह बमुश्किल 15 से 20 फीसदी ही है। यदि हर माह 2 करोड़ नए मोबाइल उपभोक्ता पैदा हो रहे हैं तो उसी के सापेक्ष डाक विभाग प्रतिदिन दो करोड़ से ज्यादा डाक वितरित करता है। 1985 में यदि एसएमएस पत्रों के लिए चुनौती बनकर आया तो उसके अगले ही वर्ष दुतगामी ‘स्पीड पोस्ट‘ सेवा भी आरम्भ हो गई। यह एक सुखद संकेत है कि डाक-सेवाएं नवीनतम टेक्नोलॉजी का अपने पक्ष में भरपूर इस्तेमाल कर रही हैं। ‘ई-मेल‘ के मुकाबले ‘ई-पोस्ट‘ के माध्यम से डाक विभाग ने डिजिटल डिवाइड को भी कम करने की मुहिम छेड़ी है। आखिरकार अपने देश में इंटरनेट प्रयोक्ता महज 7 फीसदी हैं
आज डाकिया सिर्फ पत्र नहीं बांटता बल्कि घरों से पत्र इकट्ठा करने और डाक-स्टेशनरी बिक्री का भी कार्य करता है। समाज के हर सेक्टर की जरूरतों के मुताबिक डाक-विभाग ने डाक-सेवाओं का भी वर्गीकरण किया है, मसलन बल्क मेलर्स के लिए बिजनेस पोस्ट तो कम डाक दरों के लिए बिल मेल सेवा उपलब्ध है। पत्रों के प्रति क्रेज बरकरार रखने के लिए खुशबूदार डाक-टिकट तक जारी किए गए हैं। डाक विभाग अपनी ब्रांडिंग भी कर रहा है। ‘प्रोजेक्ट एरो‘ के तहत डाकघरों का लुक बदलने से लेकर काउंटर सेवाओं, ग्राहकों के प्रति व्यवहार, सेवाओं को समयानुकूल बनाने जैसे तमाम कदम उठाए गए हैं। इस पंचवर्षीय योजना में डाकघर कोर बैंकिंग साल्यूशन के तहत एनीव्हेयर, एनी टाइम, एनीब्रांच बैंकिंग भी लागू करने जा रहा है। सिमकार्ड से लेकर रेलवे के टिकट और सोने के सिक्के तक डाकघरों के काउंटरों पर खनकने लगे हैं और इसी के साथ डाकिया डायरेक्ट पोस्ट के तहत पम्फ्लेट इत्यादि भी घर-घर जाकर बांटने लगा है। पत्रों की मनमोहक दुनिया खत्म नहीं हुई है। तभी तो अन्तरिक्ष-प्रवास के समय सुनीता विलियम्स अपने साथ भगवद्गीता और गणेशजी की प्रतिमा के साथ-साथ पिताजी के हिन्दी में लिखे पत्र ले जाना नहीं भूलती। हसरत मोहानी ने यूं ही नहीं लिखा था-
लिखा था अपने हाथों से जो तुमने एक बार,
अब तक हमारे पास है वो यादगार खत।

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